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भगवान बुद्ध का इस्तेमाल भारत के खिलाफ कैसे कर रहा चीन, श्रीलंका-म्यांमार के सहारे बिछा रहा नया जाल…

हिन्द महासागर में चीन की दखलंदाजी रुकने का नाम नहीं ले रही है।

भारत और अमेरिका की सख्त आपत्तियों के बावजूद चीन दक्षिण एशिया में अपनी भू-राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को बढ़ाने में जुटा हुआ है।

नई तरकीब के रूप में चीन ने अब भगवान बुद्ध की आड़ लेना शुरू कर दिया है।  ता

जा घटनाक्रम में बौद्ध सॉफ्ट कूटनीति को अपनाते हुए चीन ने  श्रीलंका को म्यांमार की ओर आगे बढ़ाया है। यह कोशिश चीन द्वारा हाल ही में प्रस्तावित बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को आगे बढ़ाने के क्रम में सामने आई है।

चीन ने म्यांमार में बनाए अपनी ऊर्जा पाइपलाइन की सुविधा तक श्रीलंका की पहुंच बनाने के लिए हिंद महासागर में एक आर्थिक गलियारे की पेशकश की है।

चीन की यह पेशकश तब हुई है, जब पिछले साल 19 दिसंबर को श्रीलंकाई सरकार ने एक्सक्लूसिव इकॉनमिक जोन में (ईईजेड) में अनुसंधान करने वाले चीनी जहाजों पर एक साल तक की रोक लगा दी थी।

पिछले साल 25 अक्टूबर को जब चीनी जासूसी पोत शी यांग 6 श्रीलंका के जलीय क्षेत्र में पहुंचा था, तब भारत और अमेरिका ने इस पर ऐतराज जताया था और हिन्द महासागर में क्षेत्रीय शांति और अस्थिरता को लेकर चिंता जताई थी।

इसके बाद श्रीलंका ने चीनी पोत के रिसर्च मिशन पर रोक लगाने का ऐलान किया था। नई दिल्ली द्वारा उठाई गई सुरक्षा चिंताओं के बावजूद, श्रीलंका की राष्ट्रीय जलीय संसाधन अनुसंधान और विकास एजेंसी (एनएआरए) ने जोर देकर कहा है कि जलीय क्षेत्र में चीनी पोतों को संयुक्त अनुसंधान की अनुमति दी जानी चाहिए।

श्रीलंका के रुख में यह बदलाव चीन के बौद्ध नीति की आड़ में आया है। दिसंबर में श्रीलंका में आठवां दक्षिण चीन सागर बौद्ध धर्म गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इसका मुख्य विषय “सद्भाव में एक साथ चलना और रेशम मार्ग का ज्ञान जुटाना” था।

इस सम्मेलन में मंच पर 25 देशों के 400 से अधिक बौद्ध भिक्षुओं, विद्वानों, सरकारी अधिकारियों और प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मानित अतिथियों में श्रीलंका के राजपक्षे बंधु (पूर्व राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री) भी शामिल थे।

सम्मेलन में हान चीनी, चीनी तिब्बती और थेरवाद को बौद्ध धर्म से जोड़ने का प्रयास किया गया और दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में शांति, पारस्परिक सीख और लोगों के बीच आपसी संपर्क और सद्भाव बढ़ाने पर जोर दिया गया।  सम्मेलन में चीन के बौद्ध संघ के उपाध्यक्ष यिन शुन केंद्रबिन्दु में थे। वह  चीनी पीपुल्स पॉलिटिकल कंसल्टेटिव कॉन्फ्रेंस (सीपीपीसीसी) के सदस्य हैं। साफ है कि इस गोलमेज सम्मेलन के जरिए चीन ने बौद्ध धर्म की आड़ लेकर क्षेत्रीय एकता को स्थापित करने की कोशिश की है।

दरअसल, चीन चाहता है कि ‘चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे (सीएमईसी)’के जरिए म्यांमार और श्रीलंका को जोड़ा जाय, ताकि हिन्द महासागर के पूर्वी हिस्से में वह क्षेत्रीय प्रभुत्व कायम कर सके। इसके लिए चीन लगातार श्रीलंका पर डोरे डाल रहा है। इस कड़ी में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी का उपयोग करते हुए, श्रीलंकाई राष्ट्रपति विक्रमसिंघे ने अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत करने के समाधान के रूप में पूर्वी एशिया और आसियान व्यापार को प्राथमिकता दी है। विक्रमसिंघे की पहल को चीन अपने रणनीतिक उद्देश्यों का एक पड़ाव समझ रहा है। चीन लंबे समय से क्याउकफ्यू बंदरगाह और हंबनथोटा बंदरगाह को जोड़ने की राह देखता रहा है।

श्रीलंका और म्यांमार को जोड़ने की चीन की कोशिश भारत समर्थित सितवे बंदरगाह को कुंद करना भी है, जो चीनी वित्त पोषित क्यौकफ्यू बंदरगाह के लिए एक रणनीतिक खतरा है। म्यांमार की सैन्य जुंटा सरकार ने चीन को इस बंदरगाह को विकसित करने की पूरी छूट दे रखी है। इसके बदले चीन दुनिया के हर मंच पर म्यांमार की सैन्य तानाशाह सरकार का बचाव कर रहा है।

म्यांमार में स्थित क्याउकफ्यू बंदरगाह इस क्षेत्र में स्थित उन कई बंदरगाहों में शामिल हैं, जिनका संचालन चीन के हाथों में हैं। इनमें कंबोडिया में रीम नौसैनिक अड्डा, श्रीलंका में हंबनटोटा और पाकिस्तान में ग्वादर के अलावा जिबूती में एक नौसैनिक स्टेशन भी शामिल है।

कुल मिलाकर देखें तो चीन पूर्वी हिन्द महासागर में बौद्ध कार्ड खेलकर भारत के खिलाफ नया मोर्चा बनाने की फिराक में जुटा है।

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